हम मनुष्य हैं पेंड़ नही
*#हम_मनुष्य_हैं_पेंड़_नही*
हमारे दुख में वो कट जाते हैं
हमारे सुख में वो सूख जाते हैं
हमारा दुख हो या सुख
वो मासूम जल जाते हैं
इस जलने में जलन नहीं
परोपकार है
न चिखते हैं,न रोते हैं
पूरी खामोशी से वो
दहक-दहक कर
राख हो जाते हैं
कोई जड़ से कटता है
कोई साखों से
सीधा हो या टेढ़ा
खड़ा नहीं रहता
कटता जरूर है
हम एक पौधा रोप नहीं पाते
पर वर्षों से खड़े वृक्षों को
पूरी निर्ममता से
अपनी आवश्यकता के लिये
टुकड़ों-टुकड़ों में काटकर
चूल्हा,चूल या फिर भट्ठी में
डाल देते हैं
हमारी जड़ें उखड़ती हैं
हमारी साखें कटती हैं
और डालियाँ टूटती हैं
तब हम चिखकर रो पड़ते हैं
और जब हमारी दुनिया जलती है
तब हम मिट्टी में मिल जाते हैं
परोपकार हममें भी है
पर उसकी एक सीमा है
हम मनुष्य हैं पेंड़ नही |
*#असकरन_दास_जोगी*
ग्राम-डोंड़की, पोस्ट+तह.-बिल्हा, जिला-बिलासपुर(छ.ग.)
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