आभा

*#आभा*

बारिश का पानी
बनकर बहने लगी
वो चाहती है
कि मैं बन जाऊँ...
कागज की कश्ती

उसके और मेरे हाल में
उतना ही अंतर है
जितना की...
धरती और आसमान में
किन्तु....
विचारों में नहीं

भोली बिल्कुल नहीं
वो आज की लड़की है
दिल के दरवाजे को
यूँ ही खोलकर...
बेधड़क घूस जाती है

मैं खुद को
बंद सा महसूस करता हूँ
वो खुलने की बात करती है
चाँद तो है ही वो...
और चंचलता है उसमें
किन्तु मुझे....
चकोर बनाना चाहती है

तारे जैसा
टूट जाऊँगा मैं
कैसे कहूँ उससे
चौंध सा गया हूँ...
आभा की आत्मा की आभा में

*#असकरन दास जोगी*

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