रू

*#रू*

जब भी मिलता हूँ
हजारों के भींड़ में भी
मैं तनहा हो जाता हूँ

शरीर तो चला आता है
क्योंकि आना तो पड़ेगा ही
हमारा बसेरा नही है वहाँ
लेकिन मन
तुरंत वहीं ठहर जाता है

पगला हृदय
अपनी गति से तेज दौड़ने लगता है
ऐसा लगता है
एक मदमस्त घोड़ा काबू से बाहर हो गया हो
और मन की कहें तो
मन की गति
हम नाप ही नहीं सकते

हजारों मिल दूर आने के बाद भी
मन पवन से भी तेज़ बहता
उसकी मुस्कुराहट,नज़रें मिलाना और हमारे लौटने पर
हमें मुड़ कर देखना
पता नहीं कैसे क्षण भर में
आँखों के लिए
यह सब उपहार
साथ ले आता है
शायद कुछ छोड़ भी आता हो ?

रूको कहने पर रूकता नहीं
रूप पर ही मरता नहीं
शायद रूह का सुनता हो
तभी तो
उसके लिए रू... रू... रू... करके
रूदन करता है |

*#असकरन_दास_जोगी*

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