अंतस के आस

*#अंतस_के_आस*

जब कोनो ककरो
मन के मँधरस ल
झारे बर भींड़ जाय...
तब ओला का कहिबे

अंतस म बसे
सांसारिकता के मनियारी गोंटी ल
कोनो पड़की बनके बिनथे
त वो पड़की...
कोन मेर बइठथे

निराठ परे
शांत जिनगी म
आँखी के अमरइया बीच
जब कोनो
कोइली बनके कुहकथे
तब वो आरो ल...
कइसे सुने ल छोड़ देबे

बात जब तन जीते के नहीं
मन जीते के होथे
तब कइसे तैं ह
असाढ़ के करिया बादर ल
नेवते ल...
छोड़ देबे

जब कोनो मंजूर बनके
अपन मन के भाव
अंतस के आस
जिनगी के सार पाँखी ल
ककरो आगू म छतरियाथे
तब येला का कहिबे |

*#असकरन_दास_जोगी*

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