आस

*#आस*

मैं उन ओस की
बूंदों से पूछना चाहूँगा
क्यों हरदम...
घास पे गिरते हैं ?
मुझे भी शीतलता चाहिए
कभी मेरे हृदय पर भी...
आकर पड़ो
जब तुम कोहरे होती हो
ढंक लेती हो...
नजर की ओर से छोर तक
और फसलें...
कभी रोती हैं कभी हँसती हैं
बिल्कुल बच्चों की तरह
जैसे ही धूप पड़ती है
तब तुम छट जाती हो
आँख को दिखते...
भ्रम की तरह
तब भी मैं शांत रहता हूँ
क्योंकि मुझमें...
तुम्हारे फिर आने
और मुझे शीतलता
प्रदान करने की...
आस है |

*#असकरन दास जोगी*

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