दाग़

*#दाग़*

भद्दा दिखता है
गंदा दिखता है
काला है यह
कलंक है
लांछन लगने से
निर्मलता
खो जाती है
बदनामी ही
हाथ लगती है
निराकार भी
और साकार भी
आग से भी ज्यादा
ज्वाला है इसमें
धब्बा ही है यह दाग़
जो भस्म कर देता है
मन का मन से
सम्मान
इसकी खुशबू
पल भर में
फैल जाती है
निरस होकर भी
कड़वी लगती है
इसका स्वाद
कपड़े पर लग जाए
तब शायद धुल जाए
चरित्र पर जो लग गया
अच्छे-अच्छे
चरित्रवान को भी
हर किसी के नज़र से
गिरा देता है
यह दाग़ |

*#रचनाकार_असकरन_दास_जोगी*

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