खालिस्थान
वो मेरी.......... है
मैं उसका.......हूँ
वो चाहे जो भर सकती है
मैं चाहूँ जो भर सकता हूँ
पता है...
ये खालिस्थान होना
कितना अच्छा लगता है
मैं उसका.......हूँ
वो चाहे जो भर सकती है
मैं चाहूँ जो भर सकता हूँ
पता है...
ये खालिस्थान होना
कितना अच्छा लगता है
इस खालिस्थान में
चलो भाव भर लेता हूँ
उस शासक उस शोषक
पुरुषत्व को त्यागकर
बीच का हो जाता हूँ
बड़े प्यार से...
मैं प्रेम के पलों को जीता हूँ
चलो भाव भर लेता हूँ
उस शासक उस शोषक
पुरुषत्व को त्यागकर
बीच का हो जाता हूँ
बड़े प्यार से...
मैं प्रेम के पलों को जीता हूँ
पता नहीं कैसे
जिन्दा होकर भी
मैं उस पर मर जाता हूँ
मैं मैं तो रहता हूँ
किन्तु कुछ क्षणों में...
मैं मैं को छोड़
वह भी हो जाता हूँ
जिन्दा होकर भी
मैं उस पर मर जाता हूँ
मैं मैं तो रहता हूँ
किन्तु कुछ क्षणों में...
मैं मैं को छोड़
वह भी हो जाता हूँ
कोई क्या समझेगा
इस खालिस्थान को
कोई क्या भरेगा
इस खालिस्थान में
नहीं जताना
नहीं दिखाना
बस कहूँ तो...
वह अपने पिताजी के जैसी है
मैं अपनी माता जी के जैसा हूँ
इस खालिस्थान को
कोई क्या भरेगा
इस खालिस्थान में
नहीं जताना
नहीं दिखाना
बस कहूँ तो...
वह अपने पिताजी के जैसी है
मैं अपनी माता जी के जैसा हूँ
कुछ है
तो वह सम्बन्ध है
बन्धन नहीं
कहूँ तो
वह वह है
मैं मैं हूँ
फिर भी हम दोनों...
अलग नहीं बस हम हैं
तब भी यहाँ बहुत सारा
खालिस्थान है |
तो वह सम्बन्ध है
बन्धन नहीं
कहूँ तो
वह वह है
मैं मैं हूँ
फिर भी हम दोनों...
अलग नहीं बस हम हैं
तब भी यहाँ बहुत सारा
खालिस्थान है |
*#असकरन_दास_जोगी*
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