विद्रोही युग
विद्रोही युग
तस्वीर दिखाता हूँ
इन शब्दों से
युगों-युगों की है व्यथा
बिन पलक झपकाये देखना
मूलनिवासियों की है गाथा
सुख था
समृध्दि थी
वैभव के उड़ते थे शोर
पड़ी नज़र
असित ह्रदय वालों की
छाया अन्धकार घनघोर
सुनो-सुनो
संग्राम पर संग्राम हुआ
रंग गई धरती
रक्त की धार से
कैसे बचते मूलनिवासी
कुटिल छलियों के
धोखे और वार से
राजाओं को कैद किए
जनता हुई गुलाम
धर्म संस्कृति ग्रंथों से
रचे नये मुकाम
धन धरती और शिक्षा
स्वाभिमान का भी लूटे अधिकार
मूलनिवासी समाज में
भर दिए विकार ही विकार
जाति की खाई खोदे
बांटे टुकड़ों-टुकड़ों में
लड़ते भिड़ते हम रहते
अपने ही पिण्डों में
यह भी देखो
और चिंतन करो
जो मृत है जीवित होकर
क्रांति का मशाल धरो
तुम जाग रहे हो
तुम जागो
संघर्ष का है रास्ता
लक्ष्य की ओर भागो
श्रेष्ठ की श्रेष्ठता खतरे में
बौखलाहट दिखता है
रासुका जैसे कानून
पल-पल में हमको मिलता है
अब डोल रही हैं
मुँह मोड़ रही हैं
सिंहासन बत्तीसी की
चमत्कारी सुंदरियाँ
साथ छोड़ रही हैं
सतयुग द्वापर त्रेता
शूद्र दमन रहा जारी
लो ज्वालामुखी फट गया
कलयुग पड़ा भारी
कब तक सहते जुल्म
यूँ ही युग-युग
गज के चिंघाड़ों से
बना विद्रोही युग |
असकरन दास जोगी
9340031332
www.antaskegoth.blogspot.com
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