Posts

Showing posts from March, 2020

प्रकृति से प्रेम करो

Image
*#प्रकृति_से_प्रेम_करो* उन नये पत्तों का हृदय से स्वागत् है जो इस बार पतझड़ के बाद निकल आयेंगे... 😘 वे सबसे ज्यादा प्यारे और मासूम होंगे बिल्कुल हमारे अजन्मे बच्चों की तरह...😍 आज प्रकृति कितनी ज़हरीली लग रही है वे जब निकल आयेंगे तो देख लेना नई श्वास घोलेंगे हमारे आशियाने के आस-पास सुनो ! प्रकृति से प्रेम करो...💏 वे पत्ते जो पुराने हैं और पीले पड़ गये हैं उन्हें झड़ने से पहले न तोड़ें उन्हें हमारी देखभाल और प्रेम की आवश्यकता है बिल्कुल हमारे बुज़ुर्गों की तरह...(👥) उन तमाम पेंड़ पत्तों और प्राणियों से प्रेम करो जिन्हें प्रकृति ने सृजन किया है अन्यथा असंतुलन फैलने पर जब प्रकृति संतुलन स्थापित करेगी तब सबसे ज्यादा भरपाई मनुष्यों को ही करना होगा क्योंकि प्रकृति से खिलवाड़ हमने ही तो किया है न....🌍 *#असकरन_दास_जोगी*
Image
*#हमारा_नंगापन* बहुतों के सामने हमें नंगा होते देखा जा सकता है चाहे वह व्यवहार से हो या विचार से किस मिट्टी के बने हुए हैं हम पुरुष ? हमारा नज़रिया और नियत कब डोल जाये खुद ही पता नही रहता हम अधिकतर मर्द ऐसे ही होते हैं जो किसी महिला के पिछवाड़े से लेकर सीना तक कब ताक जायें कोई रोक ही नहीं सकता किन्तु यह भी सत्य है हर कोई ऐसा नहीं होता कुछ तो होते ही हैं जो नारी सम्मान को मानवता के साथ महत्व देते हैं तब ही तो इस संसार को ऐसे पुरुषों की ही आवश्यकता है एक पुरुष जो दम्भी शोषक और शासक है उसके लिए बहुत आसान है एक स्त्री को नंगी कहना या करना लेकिन यह आँच जब खुद पर आती है तब वह अपने नंगेपन को छिपाते हुए फिरता है हम पुरुषों को अपने नंगेपन को पहचानना चाहिए हम नंगे तब होते हैं जब किसी लड़की से द्विअर्थी बाते करते हैं उन्हें वासना भरी नज़रों से निहारते हैं वे प्रत्येक व्यवहार और विचार हमें नंगा करते हैं जो एक स्त्री और पुरुष के बीच मर्यादा को लांघती है | *#असकरन_दास_जोगी*

मेरी कविता

Image
विश्व कविता दिवस पर.... *#मेरी_कविता* मेरी कविता बस शब्दों का ढ़ाँचा नही है मेरी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है जब भी पढ़ें जरा गौर से पढ़ें या फिर कोई जरूरी भी नहीं है मेरी कविता ठिठोली करने वाली भाभी है वैसे मेरी सम्धन भी है इससे बच कैसे सकता हूँ मुझे ताक झाँक करने वाली मेरी पड़ोसन यह वही मेरा दुष्ट दोस्त है सच कहूँ... मेरी कविता मेरी प्रेमिका है मेरी कविता पंख वाले हाथी,घोड़े या फिर राजहंस के साथ नही उड़ती मेरी कविता हवाई यात्रा करने के बाद भी गौरैया के साथ बैठकर बातें करती है सुनो....? मेरी कविता मौलिक अधिकारो की लड़ाई लड़ती है यह कल्पनालोक में नही रहना चाहती मेरी कविता बुलेट ट्रेन की सपने देखती है मेट्रो में महानगर घूमकर मेमू लोकल से घर लौट आती है मेरी कविता को घूमना बहुत पसंद है मेरी कविता गाँव के चौराहे में खड़ा हुआ एव विशाल पीपल है अगर अच्छे से देखो तो आँगन के चौंरे में लगी हुई तुलसी है यह हरियाली भी देगी और स्वास्थ्यवर्धक भी करेगी मेरी कविता समन्दर से नमकीन होकर लौटती है और गाँव के तालाब में भैंस धोती है इसे स्टेटस बनाये रख

तब हम खेल पाते होली

Image
*#तब_हम_खेल_पाते_होली* हमारे चेहरे का रंग तो तभी उड़ गया था जब आम और ख़ास लोगों के बीच में दीवार खड़ी की गई थी अब इन अबीरों को लगाने से चेहरे में रंगत थोड़ी न आएगा हमारे सपनों के रंग इंद्रधनुष के सात रंगों से भी ज्यादा थे किन्तु सबको रक्तरंजित कर सिर्फ लाल कर दिया गया उन बंधुत्व के रंगों को हम ढूँढ़ रहे हैं दिलवालों की नगरी दिल्ली में हमारी विद्वता,वैज्ञानिकता और मेहनत का रंग हमारे और हमारे देश के लिए कोई काम का नही है जब हम विदेशों से मूर्ति लाते हैं विदेशों से विमान लाते हैं क्यों भला... हम हर चीज़ खरीदते हैं ? क्या हमारे सृजन का रंग बेरंग है ? हमारे खुशियों का रंग यूँ ही गायब नहीं हुआ है उसे गायब किया गया है ठीक वैसे ही जैसे यश बैंक से रंगीन नोटों का घोटाला किया गया है और आज हमें इस बैंक की तरह हर रंग से दीवालिया घोषित किया जा रहा है पता है...? इन रंगबाज़ों ने रंगरेलियाँ मनाने के लिए गरीबों से उनकी रंगीनियाँ छिन ली हमारी होली तभी सार्थक होती जब हम आम और ख़ास लोगों के बीच दीवार न उठाते दंगे न करते हमारे सृजन का रंग बेरंग न होता अपनी रंग
Image
हमर घर के माईलोगिन पेट हर पोट-पोट करत रहिथे तभो लांघन लगे रहिथैं घर के सबो अढ़वा म अउ हम पूछन घलो नही खाय हवव के नही कभू कहन नही थोकन धीरता तो लव हमुँ हाथ बटा देथन एकर जघा म रेंग देथन अँइठ के इंकर रहत ले हमला चिन्ता नइ रहय घरबार के सबके हलि भली लेथैं करथैं देखरेख फेर कोनो ल नइ दिखय इंकर तन के तकलीफ़ कइसे लागत हे कहिके हम मुंह फुटकारे नइ सकन जब गोठियाथन तमियावत रहिथन गुरतुर गोठ निकलबे नइ करय हमला सोचना चाही का मनखे हमिच बस आन ? जिंकर रहत ले घर हर घर आय नहिते दर हे अउ समय परे म दर-दर घलो हो जाथन गुनलव... दया मया के देवइया हमर घर के माईलोगिन असकरन दास जोगी

सुनो दिल्ली

Image
#सुनो_दिल्ली दिलवालों के दिल में दीवार उठाते हैं देशद्रोही तो यही हैं दया धर्म इन दानवों में दशमलव मात्र भी नही है इनके सीने में दिल नहीं है दिल्ली तुझे दावानल की तरह दहका रहे हैं दम नहीं इनमें कुछ बनाकर दिखाने का लेकिन दहशत में तुझे दहला रहे हैं दम मत तोड़ना दिल्ली यह दाग़ इनके ही दामन में लगेगा दर्द दस को नहीं पूरी दुनिया को है दौंड़ो दबोचो इन दरिंदों को जकड़ो और ज़िन्दा दफ़न कर दो इन्हें दाग और दर भी नसीब न हो ये जो दंगे फैला रहे हैं | *#असकरन_दास_जोगी*

माटी कस मम्हाथे

Image
माटी कस मम्हाथे-छत्तीसगढ़ी गीत घड़ी-घड़ी बरसथे सुरता के बादर वो माटी कस मम्हाथे मोर भीतर...2 ददरिया बनाके गावँव वोला,महानदी कस लहरा लेवँव | बैसुरहा दीवाना सब कहिथैं,मैं मया के बर सबला देवँव || कइसे बाँच पाही भिथिया भला,जब परही ओरवाती के झीपर... घड़ी-घड़ी बरसथे सुरता के बादर,वो माटी कस मम्हाथे मोर भीतर...2 न अदना बदेवँ न बदना,बिन मांगे हिरौंदी मिलगे | ए उजरत अँगना बारी म,मया के फूल मनमाने फूलगे || जब-जब आही घेख्खर पतझर,उहू करही मोर फिकर... घड़ी-घड़ी बरसथे सुरता के बादर,वो माटी कस मम्हाथे मोर भीतर...2 जेकर हंसा ले मोर हंसा जुड़गे,अउ मन के डोर बंधागै | रहि लेवय वो कतको दूरिहा,दूरिहा कस नइ लागै || परजै वोकर पाँव तरी भूलन,फेर करही मोर जिकर.... घड़ी-घड़ी बरसथे सुरता के बादर,वो माटी कस मम्हाथे मोर भीतर...2 *#असकरन_दास_जोगी*