कैसी है यह गहराई

*कैसी है यह गहराई*

गेहूँ की बालियों सी
सुनहरी लग रही हो
अवि की तेज से
दमकता छवि
क्यों न निहारना
चाहेगा कोई
अनन्त धवल
धारण की है पट
बलखाती चलती
डगर-डगर
डगमग-डगमग
क्यों न डोले ह्रदय
अपनी ही धुन में
गाती हो प्रेम गीत
हर कोई
बनना चाहेगा
मन का मीत
खेतों में
लहराते गेहूँ
पवन पागल
लगता है
छूकर बार-बार तुम्हें
इतराये
यहाँ दीवानों का दिल
घड़ी-घड़ी जलता है
प्रेम गली में एक ही चर्चा
यह यौवन
कहाँ से लाई
प्रत्येक नैन डूबे
आकर तुझमें
कैसी है यह गहराई....!

*असकरन दास जोगी*

Comments

Popular posts from this blog

दिव्य दर्शन : गिरौदपुरी धाम(छत्तीसगढ़)

पंथी विश्व का सबसे तेज नृत्य( एक विराट दर्शन )

खंजर