क्या नही हो तुम मेरे लिये?
*#क्या_नही_हो_तुम_मेरे_लिये ?*
क्या हो तुम मेरे लिये ?
उपमा तो अनंत है 
किन्तु जो अन्तर्मन कहे 
वही कहूँगा 
सुनो...ध्यान से 
मिट्टी की वह 
सौंधी-सौंधी खुशबू हो 
जो रहेगी...
इस प्रकृति में 
मेरे साथ भी
मेरे बाद भी 
और सुनो...
यकीनन मैं कह सकता हूँ 
तुम मेरी वही डायरी हो 
जिसमें मैं 
खुद को लिखता हूँ 
शब्दों में
जरा देखो....
यहाँ छिपता कुछ भी नहीं है 
वैसे कुछ भी कहना 
सार्थक नहीं 
जब तक इन उपमाओं का मेल 
व्यक्ति की प्रकृति से न हो 
परन्तु मैं... 
यूँ ही तो नहीं कह रहा 
हाँ मैने देखा है 
तुम झरने का पानी हो 
बहती भी हो 
गिरती भी हो 
और सम्भलकर 
ठहरती भी हो 
यही तो...
अच्छा लगता है
होने को शून्य हो 
पर पृथ्वी भी तो शून्य है 
तुम कुछ भी हो सकती हो 
किन्तु कुछ भी तो नहीं हो सकती 
इस आकार पर 
यह भी विचार है 
मन में उछलने वाली 
हजारों सपनों की 
एक गेंद हो 
और मैं...
एक नन्हा सा बच्चा 
दौंड़ते भागते 
मेरे चंचल मन को 
आश्रय देने वाली 
अन्तर्मन में लगी 
एक खूँटी हो 
जिसमें मैं 
अपने जीवन को 
अपने समर्पण को 
पूर्णरूप से...
अर्पण कर पाता हूँ 
सुनो... 
अब क्या कहूँ 
क्या नहीं हो 
तुम मेरे लिये ? |
*#असकरन_दास_जोगी*
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